Sunday, October 7, 2012

राहों कि मंजिल ..........

रोज़ रोज़ हम खोजने  निकलते अपनी राहों कि मंजिल को.......
कहीं अकेली वीरान ज़िन्दगी कहीं मिले हम लोगो से भरी महफ़िल को.......
हर एक के किस्से सुनने बैठे सुना हमने हर एक दिल को.......
कितनी टूटती उम्मीदों कि वजह भी न मिली पर फिर भी दिल मजबूर धड़कने को.........

सुनते सुनते दिल भर आया पर आँखों से आंसूं न निकल पाए.......
दुसरे के दर्द को महसूस तो किया पर अपने हिस्से में उसके दर्द को न सह पाए......
कहीं किसी को खोने का था गम कहीं अपनों से बिछड़ने का एहसास था......
अपनी मंजिलों को तो भूल ही गए हम और सिर्फ उनको पाने का आभास था.......

अकेली राह भी मिली हमे और इस तरह यूँ उसमे हम आगे बढ़ते रहे.......
आंसुओं का सहारा तो बन न सके हम.......
कोशिश कर होंटों क़ी हंसी का कारन बन कर चलते रहे......
देखा और जाना क़ी इन सबमे ही तो हमारी मंजिल ने अपना रास्ता चुन लिया.......
निश्चित इस राह के अंत को दिल से स्वीकार कर ज़िन्दगी को एक नया मोड़ दिया.......!!!!

निशा :) smile always

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